मेरी रायएक नजदीकी रिश्तेदारी में जाना हुआ। भाई ने गर्म जोशी से स्वागत करते हुए अपने 8 वर्षीय बेटे को उत्साहित होकर आवाज लगाई कि आओ बेटा देखो कौन आया है? फिर अपने आप ही जवाब देते हुए बोले अरे ये तुम्हारे ताऊ जी हैं, पैर छुओ। बेटे ने अजीब प्रश्नसूचक दृष्टि हम पर डाली और अपने पापा से डाली और अपने पापा से कहा कि 'ह इन ताऊनी'। राष्ट्रपति पदक से सम्मानित वह बेटा सिर्फ मुझे गुड इवनिंग कहकर अपना बैट उठाकर खेलने के लिए चला गया। वो तो अकेला खेलने चला गया लेकिन मेरे लिए अनेक सवाल छोड़ गया, उन सवालों की छाया मेरे उस भाई के चेहरे पर साफ दिखाई दे रही थी, जिसके चेहरे पर मेरे आने की खुशी का सारा उत्साह लगभग विलुप्त हो गया था। उसे कुछ कहते नहीं बन रहा था। मैं सहसा विचार करने लगा कि आज हम अपने बच्चों को घर व स्कूल में कौन सी शिक्षा व संस्कार दे रहे हैं। अंग्रेजी स्कूलों में केवल अंकल व आंटी के ही सम्बोधन की ही शिक्षा दी जाती है। रिश्तों के जो प्यारे व अपनापन भरे हुए सम्बोधन पहले हुआ करते थे वह अब आधुनिकता के इस वातावरण में समाप्त हो रहे हैं। पहले तो चाचाजी, चाचीजी, बुआजी, फूफानी, ताऊजी, ताईजी, मौसानी, मौसीजी, दादानी, दादीजी, अम्मानी आदि मीठे-मीठे संबोधनों में रिश्तों को चासनी गाड़ी होती थी लेकिन अब तो इनको विलुप्त करके अंग्रेजी के केवल कुछ शब्द के अन्दर समाहित कर दिया है, जिसे अंकलजी व अंटोनी में समेट दिया गया है। वैसे भी, अब तो परिवार ही सिकुड़ गये हैं। पहले जहां 6-7 भाईबहन हर घर में होते थे अब अधिकतम दो ही बच्चे घरों में मिलते हैं, किसी-किसी घर में तो अब एक ही बचा दिखाई देता है। इस तरह चाचा, ताक, मौसा, फूफा के रिश्ते खुद ही खत्म हो गये हैं, जिस घर में एक लड़का व एक लड़की होंगे तो उनके बच्चे किसे चाचा नी-ताक नी, मौसा-फूफा जी कहेंगे। दूसरा मुझे नब बहुत दुख होता है जब हम फैशान की दौड़ में अंधे होकर यह भी देख नहीं पा रहे कि हम जो कपड़े पहन रहे हैं वह दूसरों को भी अच्छे लग रहे हैं या नहीं। ये बिल्कुल भी विचार नहीं करते कि हम पर वह वस्त्र कैसे लग रहे है और तो और अब इन वस्त्रों को पहन कर शीशे के सामने खड़े होकर अपने को निहारते भी नहीं हैं। केवल कुछ उन फिल्मी सितारों की होड़ करते हुए हम उनकी तरह फटे हुए कपड़े पहनने लगते हैं जबकि वह फिल्मी सितारे स्वयं हमसे दूरी बनाने के लिए अनोच-अजीव डंग के कपड़ने पहनते हैं लेकिन हम वगैर सोचे समझे उनकी नकल कर रहे हैं।
आजकल कुछ हमारे युवा जगह-जगह से फटी हुई जोंस शान से पहनकर घूमते हैं। घोर आशर्ग की चात यह है कि इन बहुत ज्यादा पिसी हुई व जगह-जगह से फटी हुई जींस को बाजार से बहुत महंगे दामों पर खरीद रहे हैं। जिन्हें कोई मुफ्त में भी लेना नहीं चाहेगा। मैं सोचता हूं हमारे बच्चों की बुद्धि आखिर चली कहाँ गई है? ने बुवा इन बेहद फटी हुई व पिसी हुई जींस को पहनने का कारण केवल यह बताते हैं कि इस तरह की फटी हुई पैन्ट, उस फिल्म में सलमान खान ने पहनी थी। किसी फिल्म में हो सकता है कि किसी हीरोइन ने अपने कंधे दर्शाती हुई शर्ट पहनी होगी और उसके बाद तो अब स्थिति यह है कि देश की हर दूसरी लड़की ने अपनी शर्ट, ब्लाउज में कंधों को दिखाने के लिए बड़े-बड़े छेद करवा लिये हैं। पहनने वाली लड़की ने उस हीरोइन के कपड़ों की नकल तो कर ली लेकिन अपनी शक्ल व शारीरिक संरचना की तुलना हीरोइन से नहीं की। रादि हम थोड़ा सा भी आत्म चिंतन करते तो उन फिल्मी हीरो व हीरोइन की नकल करने से पहले एक बार अपनी शक्त जरूर शीशे में देखते।
रीराय है किहम अंग्रेजोव फिल्म अभिनेता-अभिनेत्री की नकल करतेम करते अपने देश के उनमीठे रिश्तों व संस्कारों को भुला चुके है, जिनका आज भी विदेश में अनुसरण किया जा रहा है। आज हमारे बच्चों को कान्वेट वपश्लिक स्कूलों में जिस तरह की शिक्षा दीज रही है, वह हमारे रीति-रिवाजों व संस्कारों से कोसों दूर है, आज बच्चों को देश के पूर्वजों की गौरवशाली गाय नहीं पढ़ाई जाती है और न ही उन्हें देशका इतिहास वभूगोल की जानकारी दीजाती है। जो स्कूली शिक्षापहले दसवी व बारहवी तक पढाई जाती थी वह अब इग्लिश व पब्लिक स्कूलों में खत्म कर दी गई है। पहले आठवी-दसवीं तक हमारे पूर्वज किताब में अंग्रेजों से मुकाबला करने वाली लक्ष्मीबाई की वीरता, मुगलों से टकराने वाले महाराणा प्रताप की गवा, राष्ट्रहित में अपनीहहिंडयादान करनेवाले ऋषिदधीचि, वीर शिवाजी,आजादी के लिये फांसी बढ़ने वाले सरदार भगत सिहयचन्द्रशेखर आजाद, आजाद हिन्द फौजबनानेवाले सुभाष चन्द्र बोस, पकिस्तान के टैंकों को तोड़ने वाले वीर अब्दुल हमीद अदि के बारे में पढ़ाया जाता था, वह सब अब बच्चों के कोसों से बाहर हो गये हैं। छात्रों को नते देश का इतिहासपढ़ाया जा रहा है और नाहीभूगोलबताया जारहा है। मुझे छठवी, सातवी क्लास मेपटाई गई कविताएं जो आज भी याद है, जिनमे वीर तुम बढ़े ब्लो, धीर तुमबढ़े चलो, मेरे हमउम्र लोगों को याद होगी। साथ ही उठोलाल अब आखे खेलो. पानी लाई हू मुंह चेलो आदिमन में उल्लास घोलती थी, इस तरह की कविताएंव कहानियं लुप्त हो चुकी हैं।
हमें अपने देश की संस्कृतिक संस्कारों की रक्षा करनी होगी, जिन्हें नष्ट करने कीसाजिश रची जारही है। यदि हमने अपनी संस्कृति व संस्कारों की रक्षा नहीं की और फैशन की अची दौड़ में फटे हुए विवढे खरीदकर पहनते रहे तो हमन केवल मजाक का पात्र बनेंगे बल्कि अपने देश के गैरवशाली इतिहास को अपने बच्चों के माध्यम से आगे नहीं बढ़ा पाएंगे। चाहिए तो यह कि दुनिया के लोग हमारे तरह पहने हुएकपड़ोंवहमारे संस्कारों का अनुसरण करेंनकि अंग्रेजों कीपशिमी सभ्यता व अभिनेताओं की राह पर हम चले।