मेरी राय

मेरी राय


अब तो मौत भी नहीं है सस्ती भी परिवार के लिये


नहीं किसी भी परिवार के लिये वे क्षण कितने कष्ट कारक होते हैं जब उनके परिवार से उनका कोई सगा देवलोक को प्रस्थान कर जाता है। मरने वाले की उम्र कितनी भी ज्यादा क्यों न रही हो। लेकिन उनसे बिछडने का गम तो होता ही है। इसके विपरित यदि मरने वाला अल्पआयु का रहा हो अथवा अकाल मृत्यु हो तो उस परिवार पर जो दुखों का पहाड़ टूटता है उसे केवल पीड़ित परिवार ही महसूस कर सकता है। शोक प्रकट करने आने वाले भी अब तो औपचारिकता पूरी करने के लिये आते हैं। मैने तो अनेक जवान मौतों में भी ऐसे दृश्य देखे कि शोक प्रकट करने आने वाले व्यक्ति, दाह संस्कार स्थल पर अलग-अलग ग्रुप बनाकर वहां राजनीति व दूसरे विषयों पर चर्चा करने में रहते हैं। मृत्यु यदि किसी निर्धन परिवार में होती है जो उसकी दोहरी वेदना को कौन समझ सकता है। ऐसे समय में वह किसी से भी अपनी उस पीड़ा को कहने की हिम्मत भी नहीं कर पाता। जो पीड़ा है पैसे की तंगी के रूप में उसके सामने खड़ी होती है।


जनाब आज मरना भी कहां सस्ता है। धनी व उच्च आय वर्ग वालों की तो बात ही और है लेकिन मरना तो बीच और नीचे के तबके है। जो परिवार किसी तरह से अपनी गुजर वसर कर रहा है, उस परिवार के मुखिया के दिल से उसका दर्द पूछो तब मालूम होगा। इन परिस्थितयों में उसके लिये अपने परिजन की मौत कितनी महंगी है। निर्धन व मध्यम वर्ग के परिवार की बात करे जो सीमीत आय के बावजूद अपने बच्चों का पालन पोषण व शिक्षा दीक्षा मुश्किल से कर पाता है। ऐसे परिवार से एक व्यक्ति के बिछड़ने के साथ-साथ, उसका दूसरा दर्द उसकी आर्थिक बदहाली भी है। जिसे ऐसे वक्त में वह किसी से बयां भी नहीं कर सकता है। बल्कि सभी सामाजिक परम्परा को पूरा करने के लिये कभी-कभी एसे व्यक्ति को कर्जा भी लेना पड़ता हैभगवान ना करे कि किसी परिवार पर ऐसी विपत्ति आये, लेकिन जिस पर आ गई है उसे तो झेलना पड़ेगा ही। अन्तिम क्रिया का सामान, हिन्डन पर दाह संस्कार व्यय, एकादश पर मृतक के निमित दैनिक उपयोग की सभी वस्तुओं में कुछ मिला एक लाख रूपये तक का व्यय हो जाता है। इसके बाद दूसरे जो सबसे बड़ी आज सामाजिक कुरीती पैदा गई हैं। वह है तेहरवीं पर अनाप शनाप व्यय। जिसको समाज के उच्च वर्ग ने तो बहुत महंगा कर दिया। कहीं-कहीं तो मैने देखा है कि तेहरवीं पर किसी उत्सव की तरह तैयारियां की जाती हैं। तथा बड़ा सा टैन्ट लगाकर खाने में शादी ब्याह जैसे आइटम सजाये जाते हैं। अब तो चाट के स्टाल, साथ में दो तीन मिठाईयां भी परोसने की प्रथा भी बढ़ती रही है। इसके साथ ही शोक सभा में भजन गायक बुलाना तथा शोक सभा के बाद चाय पकौड़ी भी शोक प्रकट करने आये व्यक्तियों के लिये रखी जाती हैं तथा इस तरह से पीड़ित परिवार के सदस्यों द्वारा आग्रह किया जाता है। जैसे कोई शोक सभा न हो बल्कि कोई उत्सव हो रहा हो। अब तो शोक प्रकट करने आने वाले व्यक्तियों को इस दिन स्मृति बनाये रखने हेतू भजन की पुस्तके, पौधे अथवा दूसरी चीजे बांटी जाने लगी हैं।


बांटी जाने लगी हैं। री राय है कि ये समाज की ऐसी विकृति है जिस पर तुरन्त लगाम लगानी जरूरी है। मृत्यु के दुख को हमे स्वय भी महसूस करना चाहिये तथा शोक प्रकट करने वाले आगन्तुक व्यक्ति को भी महसूस कराना चाहिये कि हम इस घटना से अन्दर से दुखी हैं। चाहे हमारे पिता जी हमारे लिये करोड़ों रूपये की जमीन जायदाद व नकदी क्यों न छोड़ गये हो लेकिन फिर भी उनकी मृत्यु पर हमें मन से दुखी होना चाहिये न कि उनके द्वारा छोड़े गये पैसों को पानी की तरह बहाकर उत्सव मनाना चाहिये। इस तरह के घनाढ्य लोग, उन गरीब परिवारों के लिये बड़ी मुसीबत खड़ी कर देते है जिनके पास अपने परिजन कि निधन के पश्चात मात्र सामाजिक औपचारिकताएं पूर्ण करने के लिये भी उपयुक्त धनराशि नही है। जिसे जुटाने के लिये उसे किसी से कर्जा लेना पड़ रहा है। क्योंकि आज मृत्यु उपरान्त होने वाले सामान्य खर्चे भी कम नहीं रह गये है। निर्धन अथवा सामान्य श्रेणी के परिवार में इस सभी सामाजिक औपचारिकता में लगभग एक से दो लाख रूपये का खर्चा आ जाता है। ऐसे परिवारों के लिये, इस धन की व्यवस्था करने में अत्यन्त कष्ट का सामना करना पड़ता है। आज की स्थिति को देखते हुये किसी ने पहले ही कह दिया था आज मरना भी नहीं है सस्ता।