मरीज से मिलने का भी सलीका होना चाहिये
आप और हम सभी सामाजिक होने के साथसाथ पारिवारिक संस्कारों से जुड़े व्यक्ति हैं। कभी-कभी रिश्तेदारी, मित्र मण्डली, परिजनों में से कोई भी व्यक्ति कभी भी अचानक बीमार अथवा दुर्घटना ग्रस्त हो सकता है तो उस समय दुखद समाचार को सुनते ही हमारे दिल में, मरीज के प्रति चिन्ता व करूणा के भाव जाग्रत हो जाते हैं। इसी को लेकर अक्सर लोग पीड़ित व्यक्ति का हालचाल मालूम करने तुरन्त अस्पताल अथवा उसके घर की ओर चल पड़ते हैं। अस्पताल में मरीज को देखने जाने से कभी-कभी विषम परिस्थितियां भी पैदा हो जाती हैं। यदि मसलन मरीज की स्थिति गंभीर हो और उसका इलाज कराने हेतू उनके परिजनों को अपने मरीज पर ज्यादा ध्यान देना पड़ रहा हो तो ऐसी परिस्थितियों में ज्यादा संख्या में शुभचिंतकों के पहुंचने पर मरीज के परिजन परेशान हो जाते हैं कि वह अपने मरीज का जीवन देखे या शुभचिंतकों से भेट करें। यही कारण है कि यदि किसी व्यक्ति पर अचानक मुसीबत आ भी जाती है तो परिवारजनों का सबसे पहला ध्येय अपने मरीज को खतरे से बाहर लाना व उसे पूर्णतया आराम दिलाना होता है। इसलिये परिजन लोग जब तक मरीज की स्थिति नियंत्रण में नहीं हो जाती तब तक कम से कम लोगों को ही घटना की जानकारी देते हैं। एक ऐसा ही प्रकरण सांसद अनिल अग्रवाल के परिजनों ने महसूस किया जब एम.पी. साहब को हार्ट अटैक आया। इस लिये उनके परिजनों ने सांसद जी के अस्वस्थ होने व उन्हें अस्पताल में भर्ती होने की सूचना तो गोपनीय रखने की कोशिश की लेकिन अस्पताल सूत्रों के कारण घटना ज्यादा समय तक छुप ना सकी। चूंकि सांसद जी सरल व्यक्तित्व के स्वामी, मिलनसार व सर्व सहयोगी होने के साथ जनता से सीधे-सीधे जुड़े हैं। इसलिये बड़ी संख्या में लोग उनकी कुशल क्षेम पूछने यशोदा अस्पताल पहुंच गये। निश्चित रूप से, इतनी बड़ी संख्या में शुभचिंतकों के अस्पताल पहुंचने पर सांसद जी के परिजन भी कुछ डिस्टर्ब जरूर हुये होंगे। इस तरह की परिस्थितियों में परिजनों व शुभचिंतकों के सोचने समझने का तरीका अलग-अलग हो जाता है। जब हम शुभचिंतक है तो सोचते हैं कि हमें अस्वस्थ व्यक्ति अथवा उनके परिवार अविलम्ब मिलकर अपनी संवेदनाये व्यक्त करनी चाहिये। लेकिन हम पीड़ित अस्वस्थ व्यक्ति के साथ लगे होते हैं तो हम सोचते हैं जब तक हमारे मरीज की स्थिति पूर्णतया नियन्त्रण में ना आ अथवा उसे पूर्ण आराम ना मिल जाये तब तक अस्पताल में मरीज डिस्टर्ब जरूर हुये होंगे। इस तरह की परिस्थितियों में परिजनों व शुभचिंतकों के सोचने समझने का तरीका अलग-अलग हो जाता है। जब हम शुभचिंतक है तो सोचते हैं कि हमें अस्वस्थ व्यक्ति अथवा उनके परिवार अविलम्ब मिलकर अपनी संवेदनाये व्यक्त करनी चाहिये। लेकिन हम पीड़ित अस्वस्थ व्यक्ति के साथ लगे होते हैं तो हम सोचते हैं जब तक हमारे मरीज की स्थिति पूर्णतया नियन्त्रण में ना आ जाये अथवा उसे पूर्ण आराम ना मिल जाये तब तक अस्पताल में मरीज देखने कम से कम लोग आये। देखने कम से कम लोग आये। कभी-कभी मरीज का हालचाल जानने कुछ ऐसे निकटतम रिश्तेदार भी आते हैं जिनकी आवभगत भी करनी जरूरी होती है। चाहें वह स्थान अस्पताल ही क्यों ना हो। तब परिस्थितियां और ज्यादा बिषम हो जाती हैं जब मरीज को देखने वाले व्यक्ति नासमझ हो ऐसे व्यक्ति कभी-कभी मरीज के मनोबल बढ़ाने की बजाय, उसे दूसरी ऐसी अनेक बुरी घटनाएं बताकर मरीज को डरा देते हैं। मरीज को देखने जाने वालों में भी एक सलीका होता है। ताकि मरीज को अच्छा महसूस हो।
राय है कि यदि हम मरीज के बहुत ही हितेषी हैं तथा उनके परिवार के अति निकट सम्बंधी नहीं हैं तो हमें उस समय तक का इन्तजार रखना चाहिये जब तक मरीज पूर्णतयः खतरे से बाहर ना आ जाये तथा चिकित्सकों के परामर्शनुसार उनसे भेट हो सकती है। कई बार ज्यादा व्यक्तियों के बार-बार मरीज से मिलने पर कुछ कीटाणु भी मरीज तक पहुंच सकते हैं जो मरीज के तुरन्त स्वास्थ लाभको रोक देते हैं। यदि सम्भव हो तो मरीज के पास कम ही जाये अथवा उनके परिजनों से सम्पर्क कर कुशलक्षेम पूछी जा सकती है। मरीज परिवार के निकटतम सम्बंधियों व अंतरग मित्रों को ऐसे व्यक्तियों पर नजर रखनी चाहिये।जो अपनी बेवकूफीभरी बातों सेमरीजकोडराये अथवा उसका मनोबल कमकरे।ऐसेलोगों को मरीज के पास पहुंचने से रोकना चाहिये। मरीज से बात करने का उचित समय क्या होना चाहिये। मरीज से ऐसे नाजुक समय में क्या बात करनी चाहिये क्या नहीं। ये गुण कम ही लोगों में होते हैं। कई बार कुछ ना समझ दोस्तों के कारण मरीज की जान खतरे में भी पड़ जाती है।