मेरी राय

मेरी राय


उतना ही लो थाली में, व्यर्थ न जाए नाली में


व्यर्थ न जाए 8 नवम्बर से शादियों का दौर शुरू हो गया है। अक्सर मेरा भी रोज किसी न किसी शादी में जाना लगा रहता है। शादी में जाकर लोगों से मिलना, बात करना जितना ज्यादा अच्छा लगता है, उससे ज्यादा बुरा वहां तब लगता है जब लोग प्लेटों में खाना भर तो लेते हैं लेकिन उसमें से थोड़ा खाकर बाकी डस्टबिन में फेंक देते हैं और फिर ये सज्जन चल देते हैं दूसरे काउंटरों की ओर। वहां से अपनी आदत के अनुसार कुछ खाते हैं या कुछ कूड़े को नजर कर देते हैं। यह हाल अकेले इन महोदय जी का ही नहीं बल्कि शादी में दावत यह हाल अकेले इन महोदय जी का ही नहीं बल्कि शादी में दावत उड़ाने वाले लगभग 60 प्रतिशत लोगों की आदत ऐसी ही बन गई है, जो न तो अन्न को महत्व को देते हैं, और ना ही उस व्यक्ति के पैसे को, सम्मान के साथ इन्हें बुलाया है और इनके सामने अपने पैसे खर्च करके स्वादिष्ट भोजन परोसा है। आज की शादियों में पहले के मुकाबले बहुत ज्यादा परिवर्तन आ गया है, पहले शादियों में नाते, रिश्तेदार, सास पारिवारिक मित्रों व पड़ोसियों को ही बुलाया जाता था। इस तरह शादियों में केवल घराती व बारातियों की संख्या अधिकतम 300-400 तक मुश्किल से ही पहुंच पाती थी। साथ ही आमंत्रित करते समय ही यह स्पष्ट कर दिया जाता था कि आपके घर से बारात में कितने लोग शामिल होने हैं। यदि किसी परिवार से उनके घनिष्ठ सम्बंध होते थे तो उसे चूल्हा न्यौता श्रेणी का आमंत्रण होता था। इसका मतलब है कि उनके परिवार के चूल्हे पर जो भी लोग रोज खाना खाते हैं, वह सभी आमंत्रित है। यदि किसी परिवर से उनके सामान्य सम्बंध होते थे तो मेजबान ही यह तय करता था कि इस घर से बारात में कितने लोग आयेंगे। पहले आजकल की तरह नहीं था कि निमंत्रण पत्र पर सपरिवार लिखा हो या ना लिखा हो, कार्ड आते ही पूरा परिवार घर में ताला ठोककर, शादी में मौज उड़ाने पहुंच जाता है। आजकल वैसे भी बहुत से लोग अधिक से अधिक लोगों को अपने समारोह में आमंत्रित करके शादी को एक रैली में बदल देते हैं। ये तो आज की आम कदावत हो गई लेकिन अपने इस स्तम्भ को लिखने का मेरा उद्देश्य उन व्यक्तियों की मानसिकता पर चोट करना है जो शादियों में खाने से भरी प्लेटें डस्टबिन में सरका देते हैं। क्या ऐसे लोगों को यह नहीं समझना चाहिए कि जिस भोजन को आपने थोड़ा सा खाकर कड़े में फेंक दिया, वह एक भूखे व्यक्ति के लिए कितना आवश्यक है, क्या आपने कभी सोचा है कि इस अन्न को उगाने में किसान ने अपनी कितनी रातें खेत में पानी के बीच खड़े होकर काटी है। इस अनाज को व्यंजन बनाने के लिए कितने हलवाइयों ने दिन-रात परिश्रम करके उसे आपके सामने परोसा है, इस अन्न को व्यंजन में बदलने के लिए आपके इस मेजबान ने अपने कड़े परिश्रम से कमाई गई रकम को सर्च किया है और जरा सा भी नमक-मिर्च कम-ज्यादा महसूस होने पर उसे बगैर सोचे समझे डस्टबिन में आपने डाल दिया । यह अत्यन्त शर्मनाक है। मैं ऐसे लोगों से पूछना चाहता हूं कि क्या वे बाजार में जब चाट का पता अपने पैसे से खरीद कर खाते है तो क्या उसे भी इसी तरह स्वाद न लगने पर,डस्टबिन में फेंक देते हैं। मैंने होटलों में खाना खाते समय ऐसे अनेक परिवारों को अपनी प्लेटों को अंगुली से चाटकर साफ करते हुए देखा है। क्योंकि उन्हें उस समय अपने पैसे से सरीदा हुआ भोजन फेंकते हुए दर्द होता है। ये वो ही लोग हैं, जो ना दूसरे के पैसों की कीमत समझते हैं ना ही अन्न को महत्व देते हैं।


मेरी राय है कि पहले तो व्यक्ति को प्लेट में भोजन लेते समय स्वयं अपने आपसे यह पूछ लेना चाहिए कि वह प्लेट में कितना भोजन भर रहाहै वो इसे खा भी लेगाया नही। क्योंकि आमय स्वस्थ व्यक्ति के पेट की क्षमता अधिकतम 400 ग्राम तक ही है। इसमें चाट खाना, पानी, मीठा सब शामिल है। लेकिन दूसरे के माल को मुफ्त का समझकर कूड़े में फेंकने वालोकोजराअपनी कल्पना में एकवार उनचेहरोकोभीयदकरलेनाचाहिए, जो रोटी के एक टूकड़े के लिये कुड़े के ढेर में घुस जाते है, हो सकता है कि गाजियाबाद या एनसीआर में ऐसे दृश्यकम दिखाई दें, यदि हम उत्तर प्रदेशके पूर्वाचल क्षेत्र, बिहार, बंगालव दुसरे गरीब राज्यों में जाकर देखें तोजहां लोग दिनरातपरिश्रमकरकेभी पेटमॅरोटीतकनहींखापारहेहै।चूकिहमएनसीआर के सम्पन्न क्षेत्र में रहते हैं।गरीबी हमने सुनी जरूर है लेकिननदेखी, नझेली है।इसलिए भरी प्लेट डस्टबिन में डालने से हमारा हाथ नहीं काफ्ता है। मेरी तो राय है कि मेजबान को कार्ड में यह लिख्या देना चाहिए कि कृपया शादी में भोजन के दौरान अन्न को सम्मान दें, झूठनन छोड़े।इसके साय-साथ जहां पर भोजनलगा हुआहै वहा एक बैनर संदेश देते हुए लगवादे कि "उतनाही ले थाली में, व्यर्थ नजएनलीमे।"


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