मानव अधिकार आयोग
मानवहित के लिये हैया दानवरक्षा हेतु!
मानवहित हत्या व बलात्कार के आरोपियों के लिए रक्षा कवच बन रहा है मानव अधिकार आयोग
गाजियाबाद। 12 अक्टूबर 1993 को मानव अधिकार आयोग की स्थापना भारत में हुई थी। देश में मानवों पर होने वाले अत्याचारों पर प्रतिबंध लगाने हेतु इस आयोग को स्थापना हुई। मानव अधिकार आयोग के सीधे निशाने पर पुलिस विभाग आता है। आम आदमी को उसके अधिकार व कर्तव्यों की विस्तृत जानकारी देने के उद्देश्य सभी थानों में मुख्य स्थानों पर आयोग द्वारा बोर्ड लगाए गये हैं। लेकिन प्रायः देखा जा रहा है कि मानवाधिकार का लाभ देश की आम जनता उतना नहीं ले पा रही है, जितना इसका लाभ अपराधी अपने को पुलिस की पकड़ से दूर रखने के लिए कर रहा है। क्योंकि एक तो वह अपराधी स्वयं भी मानव अधिकार की विस्तृत जानकारी रखते हैं, दूसरी जो कमी रहती है वह उनके वकील पूरा करते हैं। इस मानव अधिकार आयोग के डर से पुलिस, अपराधियों के विरुद्ध थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करने से पहले सौ बार सोचती है। क्योंकि पहले के वक्त में और आज के वक्त में बहुत अंतर है, जो पुलिस वाले तीन दशक पहले अपराधी को सरेआम सड़क पर, पकड़कर पीटते करते हैं, न ही सख्त पूछताछ। थे, फिर गधे पर बैठा कर शहर में ऐसा देखकर कभी-कभी तो ये जलूस निकाल कर दूसरे अपराधियों लगता है कि ये मानव अधिकार में डर व आतंक पैदा करते थे। इस आयोग मानवों की रक्षा के लिये कम आयोग के डर से वह पुलिस अब है क्योंकि मानव पर तो आज भी हर हथकड़ी लगाने से भी डरती है। तरफ से अत्याचार हो रहे हैं,जैसे मानव अधिकार आयोग ने हैदराबाद कांड, उन्नाव, कठुआ पुलिस के हाथों को इतना बांध दिया कांड व निर्भया कांड तो ताजा है कि अपराधी के साथ न तो मारपीट उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त जनता के साथ समय-समय हत्याएं, आज जेल में सजा काट रहे हैं। मारपीट, लूट होना आम बात हैं। इन गाजियाबाद के पुराने लोगों को सबके पीड़ितों पर तो मानव वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक वी.के.गुप्ता, अधिकार लागू नहीं होता, लेकिन ए.के.जैन, सुभाष गुप्ता का कार्यकाल यदि कोई अपराधी को पुलिस मय स्मरण होग। इन सभी ने अपने समय प्रमाण के पकड़ भी लेती है तो, में 200-250 कुख्यात अपराधियों उसकी पिटाई करने, पर जरूर मानव को ऊपर पहुंचाया था। यदि ये अधिकार चीच में आ जाता है। इसी कुख्यात अपराधी उस समय पुलिस आयोग के डर से अब पुलिस वाले के द्वारा नहीं मारे जाते तो क्या आम अपराधी से अपराध करने के सबूत आदमी चैन की जिंदगी जी सकता हासिल करने अथवा दूसरी वारदातों था। यदि 1990 से पहले यह मानव की जानकारी लेने हेतु मारपीट करने अधिकार आयोग होता तो पुलिस से बचते हैं। इनको भी नहीं मार पाती। पहले तो बड़े से बड़े आन मानव अधिकार को अपराधियों को भी पुलिस पकड़ कर देखकर ऐसा लगता है जैसे मानव मुठभेड़ में मार देती थी, अच उसी अधिकार अब "दानव अधिकार" नौकरी को बचाने के उद्देश्य से हाथ बन गया है। क्योंकि इसका लाभ कांपने लगे हैं। क्योंकि इसी आयोग अपराधी ही अपने हितों में ज्यादा के कारण ही अनेक पुलिस वाले उठा रहे हैं।