मेरी राय

मेरी राय


हम भी अगर बच्चे होते..


एकांत में बैठे उमदरान आदमियों को कभी-कभी बचपन की कुछ यादें अवश्य गुदगुदाती होगी। अतीत के झरोखों में झांकने मात्र से ही बचपन में की गई सारी शैतानियां व उछल कूद एक चलचित्र की तरह सामने आ जाते होंगे और गदि ऐसे में कोई बचपन का सखा पास बैठकर उस समय की मीठीमीठी यादों को कुरेद दे तो फिर तो कहना ही क्या। 


कब बचपन बीता, पता ही नहीं लगा फिर जवानी आई जो साथ में बहुत सारी जिम्मेदारी लाई। रोजगार, घर-परिवार, बच्चों की शिक्षा, चिकित्सा के लिये संसाधन जुटातेजुटाते कब चुढ़ापा आ गया, इसका एहसास आदमी को जब होता है, जब उसके बच्चे जवान होकर घर-परिवार व व्यापार की सारी जिम्मेदारी अपने हाथों में सम्भाल लेते हैं और वह साली बैठ जाता है। उसके पास समय काटने मात्र का भी कोई जरिया नहीं बचता। थोड़ी देर घर में पोते-पोती के साथ खेल लिये। बाद में बाजार से दूध-सम्नी और स्कूल से बच्चों को ले आये। इसके बाद जो समय बचा, उसमें थोड़ा अखबार पढ़ लिया तथा पार्क में जाकर थोड़ी चहलकदमी की अपने बुजुर्ग दोस्तों के साथ गप्पे मार ली।


लेकिन जब मैं आज के बच्चों को देखता हूं तो सोचता हूं कि इन बेचारों के बचपन में मनोरंजन के नाम पर तो कुछ है ही नहीं। मोबाइल या लैपटाप तक ही इनकी दुनिया संमित होती है। उसी को खेलते हुए सो जाते हैं तथा उठते ही मोबाइल से दिनचर्या शुरू करते हैं। इन्हीं मोचाइलों के सहारे इनकी जीवन नैया चलती है। एक तरफ इनका निरस्त सा बचपन है वहीं दूसरी तरफ हमारा शैतानियों से भरा बचपन था। जहां उस समय टी.वी, मोबाइल व लैपटाप नहीं हुआ करते थे, बाकी सब कुछ था। इसके अलावा झुट्टियों में नानी के घर जाना या बुआ जी व चाची-ताई जी का अपने डेरों बच्चों के साथ हमारे घर आ जाना। फिर सब मिलकर सबका पूरे घर में सारे दिन धमाचौकड़ी मचाना। गांव गये तो पेड़ों पर चड़ना और सेतों में जाकर ट्युबवेल चलाकर नहाना। पेड़ों से ताजे-ताजे फल तोड़ना व खेतों से मूली, गाजर व गन्ने उखाड़कर खाने में जो मजा आता था, उसके बारे में तो आज के बच्चे कल्पना भी नहीं कर सकते।


 कभी गन्ने के ट्रक के पीछे भागकर गन्ना खींचना, छतों पर चढ़कर ___ कभी गन्ने के ट्रक के पीछे भागकर गन्ना खींचना, छतों पर चढ़कर पतंग लूटना, मैदानों में जाकर पकिट व कंचे खेलना, साइकिल के टावर का पहिया चलाते हुए बहुत दूर तक चले जाना। दिन में गुल्ली-डंडा खेलना व रात को गंव व गली-मोहल्ले के बच्चों के साथ मिलकर 'आईसपाईस', कबड्डी, खो-खो 'इप्पी-दुप्पी' आदि खेलना। ये सब सोचकर ऐसा लगता है कि जैसे कल की ही बातें हों। जीवन के 50-60 साल कब पंस लगाकर उड़ गये और हमें आज बचपन की मीठी यादों के साथ जुड़ापे में छोड़ गये, इसच्चा अहसास ही नहीं हो पाता। बचपन में होली आने के 15 दिन पहले से ही आलू के ठप्पे बनाकर, दोस्तों को लगाकर छकाना, बड़े को लगकर गाली सुनना, सड़क पर कांटा डालकर आते जाते लोगों की टोपियां खींचना, मोहल्ले के चिड़चिड़े बुजुर्गों को छेड़ने में कितना मजा था। आज बुड्ढे हो चुके, किस बच्चे ने अपने बचपन में ये सब नहीं किया होगा, लेकिन उस सबको जवानी की निम्मेदारियां और बुढ़ापे के अकेलेपन ने हमसे कोसों दूर कर दिया है।


मेरे दोस्तों को याद होगा कि परचूनी का छोटा-मोटा सामान खरीदने मेरे दोस्तों को याद होगा कि परचूनी का छोटा-मोटा सामान खरीदने के लिये हम भाई-बहनों में होड़ लगी रहती थी, इसका कारण था दुकानदार से सामान खरीदने के बाद 'लुभाव' मांगना। 'लुभाव' शब्द आज के आधुनिक बच्चों के लिये तो बिल्कुल अनजान ही है और मेरे हम उम्र भी बचपन में दुकानदार से सामान खरीदने के बाद लुभाव मांगना शायद भूल चुके होंगे। इस लुभाव का पहले इतना प्रचलन था कि बच्चे उसी दुकानदार के पास सामान खरीदने ज्यादा जाने थे, जो सबसे ज्यादा और अच्छा लुभाव देता था। लुभाव का मतलब यह है कि दुकानदार अपने 'चाल ग्राहकों' को अपने यहां से खरीदारी कराने का प्रलोभन देते थे और उन्हें खरीदारी के बाद थोड़ा सा गुड़, बताशा या टॉफी आदि कुछ भी बच्चे के हाथ पर रस देते थे। इससे बच्चे भी खुश रहते थे और दुकानदार भी। यह लुभाव को अब बदलते वक्त ने 'डिस्काउंट' का रूप ले लिया है।


अब बदलते वक्त ने 'डिस्काउंट' का रूप ले लिया है। आन के मुकाबले वो दिन कितने सूहाने थे, कभी-कभी आपके दिलों में भी ये अवश्य विचार आता होगा कि आज की बनावट की दुनिया से बाहर निकलकर कुछ दिन अपने कुछ अंतरंग व बचपन के दोस्तों के साथ बिताए जाएं, जहां जरा सा भी दिखावा न हो। कितना अच्छा लगेगा जब हम अपने साथियों के साथ बचपन की साद ताजा करेंगे तथा 'तू-तड़ाक' के साथ दोस्तों को पहले की तरह बगैर सरनेम के सीधा उनका नाम लेकर पुकारेंगे, जैसे हरीश, राकेश, सोनू व कपिल बुलाते समय कहेंगे' अब कैसा है तू' वह भी एक मोटी सी गाली देकर कहेगा 'साले तेरी बला से' काश वो दिन कभी लौट आते तो कितना अच्छा होता।


रीराव में सभी आदमियों के अन्दरजोएकबच्चे का स्वभाव ख्यिा रहता है। |जिसेवह संकोक्दशवाहर नहीं आने देतातव गभीर बना रहता है।हमेचाहिए एक बार फिर अपने उस बचान के वातावरण में अवश्य वापसजाये। अपने सहपाठियों व लंगोटिया मित्रों को साथ लेकर किसीपर्क, फार्महाउस अश्वा गंगा किनारेजए, कहां एक-दो दिन खुले दिल से उनके साथ बचपन के बोसभी खेल दुबाराखेले. पिकनिकमनाए. उनके साथ आज गुल्ली-डंडा, पॉकट, आईस-पाईसवखो-खोजैसे खेलखेलें।इनमें आज अपनीशारीरिक क्षमताको ध्यान में रखकरहीखेलों का चयन करें। यदि आपका शरीर साथ न देतो दूसरे मित्रों के खेल में उनका साथ दे ताली बजाकर उनको प्रोत्साहितकरें।यहनसेचे कि लोग आपको देखकर क्या सोचेगे। आप जैसा भी उल्टा-सीचा नाव सकते हैं नावे, देसुरागा सकते हैं गये। सारा संकोच त्याग कर अपने उसी बचपन में लौट करजाएं।इसकीजरा सीभीचितान करें।आपके बारे में कोई क्या सोचेगा। इस तरह कुछ समय के लिए सब कुछ भूलकर अपने लिये जिये।


तरह कुछ समय के लिए सब कुछ भूलकर अपने लिये जिये। यदि आपने एक बार शीशे के समने खड़े होकर स्वयं अपने पर हसे मेरा विश्वास है किकुछदिनों में अपने को तरोताजा स्फूर्तिवनव आत्मविश्वास से भरा महसूस करेंगे। अपने आप में नजीने से, कभी-कभी 20 साल का आदमी दिल से 80 साल का बूढ़ा हो जाता है तथा वही दूसरी ओर अपने लिए जीने वाला 80 साल का बुजुर्ग 20 सालकाजवान सा नजर आता है।


Popular posts